जैन इतिहास लेखन कैसे शुरू हुआ??
जैन इतिहास लेखन और विक्रमादित्य का कथानक -
पौराणिकों और बौद्धों के अतिरिक्त जैन इतिहास लेखन इस परम्परा की तीसरी श्रेणी है । जो बुद्ध का समकालीन था । अतः जैन ऐतिहासिक ग्रन्थ काल का वर्णन करते हैं । जैनों के भी समाज के विकास के युगों के विषयों में अपने विचार थे तथा वर्तमान युग के विख्यात सम्राटों के अधिक प्राचीन इतिहास के अपने ही विशेष वर्णन थे । बौद्ध ग्रन्थों की अपेक्षा उनके सबसे प्राचीन ग्रन्थ अपेक्षाकृत कम सुरक्षित रह सके हैं जिसके परिणामस्वरूप उनके वर्तमान श्रोत ग्रन्थ ( श्वेताम्बर शाखा का अन्य कोई पाठान्तर नहीं है ) बहुत परवर्ती काल का पाठान्तर है जिसमें कुछ पाठ ऐसे भी हैं जो कि जिन के पश्चात् संभवतः , एक स वर्ष के हैं । इस श्रौत संग्रह में सबसे पुरातन पुस्तक - आचारांग ( ई ० पू ० चतुर्थ शताब्दी का अन्त ) जिनके जीवन की कुछ कथाओं का वर्णन करती है ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति ( संभवतः ई ० पू ० प्रथम शताब्दी ) इनका और परिवर्धन कर देती है , और हमें इतिहास का , कथानक में वही परिवर्तन देखने में आता है जो कि हम बौद्ध परम्परा में देख चुके हैं । जिनके कथानक का परिपाक जिनचरित्र में होता है । ( कल्पसूत्र का एक भाग ) व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राचीन कालचक्र का इतिहास भी प्रस्तुत करती है । इससे कुछ पहले स्थानांग ( ई ० पू ० प्रथम शताब्दी ? ) इसके साथ ही भारत में वर्तमान युग के सार्वभौम सम्राटों का वर्णन भी यहां दिया गया ( भारत अर्थात् दक्षिण द्वीप , उत्तर - द्वीप में भी अन्य सम्राटों की कल्पना भी की गयी है )
। इसके 24 जिन , 9 बलदेव , ( पौराणिक परम्परा का सूर्यवंशीय राम इन्हीं के अन्तर्गत है ) , 9 वासुदेव ( कृष्ण समेत ) , उनके शत्रु ( रावण तथा दूसरे प्रतिशत्रु ) और मानवता के लिए विधिविधान बनाने वाले ( जिस प्रकार पुराणों के मनु ) । इस सार्वभौम और स्पष्टतया प्राय : काल्पनिक समस्त इतिहास के लिए , अन्य धार्मिक - संहिताओं पर आश्रित स्रोत हैं , समवायांग ( एक प्रकार से स्थानांग का परिशिष्ट ) , अन्तकृतदशक , ज्ञाताधर्मकथा तथा जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्म कथा के अन्तर्गत , महाभारत का जैन रूपान्तर है । इस बात को ध्यान में
रखना लाभप्रद होगा कि जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार,
, भरत ने जो कि जैन परिपाटी में बारह सम्राटों में प्रथम था , अपने सम्राज्य का आधार पश्चिमी तट पर सिन्धु ( Indus ) को बनाया , वैताढ्य पर्वत दक्षिण द्वीप की उत्तरी सीमा को निर्धारित करता था , मनुओं का आरंभ पूर्ववर्ती युग से अनुसृत किया गया है ( समवायांग ) से इस प्रकार धर्म संहिता में प्रस्तुत की गयी सामग्री के आधार पर बहुत से उत्तरकालीन लेखकों ने , अनेक भारतीय भाषाओं में प्रायः वीर - काव्यों की रचना की ।
इन सबमें से प्रथम विमल था ( लगभग ई ० पू ० 200 ) जिसने अपने पद्मचरित में , राम की कथा , जान बूझकर , बाल्मीकीय रामायण के , जिसको वह मिथ्या घोषित करता है , विरोध में लिखी । इसके आमुख के रूप में सार्वभौम इतिहास के जैन रूपान्तर का संक्षेप साथ जोड़ दिया । उसकी धारणा है कि सबसे बढ़कर मिथ्या करण इस बात में है कि राम के शत्रु रावण को एक दानव और राक्षस के रूप में दर्शाया गया है । जबकि वस्तुत : वह एक विद्याधर ( एक मनुष्य जिसने अतिमानवीय शक्तियां , जिनमें उड़ना भी शामिल है , देवताओं की प्रतिस्पर्धा में प्राप्त कर ली थीं ) और धार्मिक विश्वास की दृष्टि से एक जैन ही था , यद्यपि ऐसा होते हुए भी वह इतना मूर्ख था कि उसने राम की पत्नी का अपहरण किया ।
वास्तविक राक्षस तो वे हैं जो पशु बलि का अनुष्ठान करते हैं ( अर्थात् कुछ ब्राह्मण ) | यह कहा जा सकता है कि जैन लेखकों ने आदर्शरूप में , ब्राह्मण इतिहास तथा आख्यान में से असत्य को छांटकर निकाल दिया है जिससे उनके सदाचार पर आश्रित हेतुवाद के अनुसार कथाओं को युक्तिसंगत बनाया जा सके और उनमें से अतिमानुषिक हस्तक्षेप को निकालकर , नायकों को अपने कर्मों के अनुसार फल का भागी बनाया जाए । इसका एक अच्छा उदाहरण , बाहरवीं शताब्दी में जैन नाटककार रामचन्द्र है ।
( उसके ऐतिहासिक नाटक , नल , राम , कृष्ण और हरिश्चन्द्र पर लिखे गये हैं , जो सबके सब ब्राह्मण आख्यानों से लिये गये हैं ) हरिभद्र ( आठवीं शताब्दी एक प्रकार का पुराण - विरोधी धूर्ताख्यान ( धूर्ती का इतिहास ) लिखने में और भी आगे निकल गया है । इस ( पुस्तक ) में धूर्तों का एक समूह वर्षा के कारण अस्थायी रूप में इधर - उधर घूमने से बाधित होकर अपने विषय में ही झूठी बातें सुनकर समय - यापन करता है । जो ( झूठ बोलने में ) हार जाये वह समूह को एक भोज दे । वे एक दूसरे के झूठ बोलने के प्रयत्नों को ब्राह्मण इतिहास से समान उद्धरण देकर सत्य सिद्ध कर देते हैं ( उदाहरणार्थ , सबसे बड़े झूठ तो ' इतिहास ' में पाए जाते हैं जिनकी तुलना में किसी भी धूर्त की झूठी बात नितान्त विश्वसनीय प्रतीत होती है ) ।
पुरातन आख्यानों पर आश्रित , एक महत्त्वपूर्ण जैन इतिहास संघदास ( लगभग 500 ई ० पू ० ) का वसुदेव हिण्डी ' वसुदेव के भ्रमण ' है जो एक यथार्थ उपन्याकेन्द्रि तभी प्रयोग में आया है । ( वसुदेव , अपने पूर्व जन्मों में कृष्ण के पिता ) इसमें इतिहास को नया रूप दे दिया गया है जिससे कथानकों को उपदेशपरक बनाया जाए , तथा सत्कर्मों और दुष्कर्मों के परिणाम दर्शाए जाएं ( प्राय : ये अनेक जन्मों में चलते रहते हैं । जैन लेखकों में यह सर्वप्रिय प्रयोग है । ) जिनसेन की हरिवंश पुराण ( ई ० पू ० 783 ) महाभारत की कथा का सबसे अधिक प्रख्यात रूपान्तर है ।
साथ ही साथ यह अपने समय तक का जैन धर्म का इतिहास भी प्रस्तुत करता है जब उत्तर ( कान्यकुब्ज ) में इन्द्रायुध राज्य कर रहा था ; वत्सराज ( गुर्जर प्रतिहार ) पश्चिम ( राजस्थान ) में ; और श्रीवल्लभ ( ध्रुव राष्ट्रकूट ) दक्षिण में ( 66 , 3. ) एक अन्य जिनसेन ( नवमी शताब्दी ) ने एक सम्पूर्ण सार्वभौमिक इतिहास ( आदि पुराण ) , या कम से कम वर्तमान युग के 63 विख्यात महापुरुषों का इतिहास ( सम्राट , जिन इत्यादि ) लिखना आरंभ किया जिसको ( उत्तर पुराण ) गुणभद्र ने पूरा किया । जिनसेन ( द्वितीय ) ने इतिहास के आशय तथा अवकाश पर आदि आदर्श समाज तथा सभ्यता के विकास इत्यादि पर कुछ अर्थपूर्ण विवेचनाएं की हैं ।
" धार्मिक संहिता के अन्तर्गत नन्दी तथा आवश्यकसूत्र जिनके पश्चात आने वाली शताब्दियों में जैन आचार्यों की एक सूची प्रस्तुत करते हैं ( एक जैन वंश के तुल्य ) इस प्रकार वे जैन इतिहास का , तथा जिनके पश्चात के भारतीय इतिहास के काल का उपक्रम करते हैं । इन ग्रन्थों में से द्वितीय , विविध प्रकार के कथानकों से इतिहास का विस्तार करते हैं ।
जैनधर्म का यह इतिहास परवर्ती काल में भी जारी रखा गया , और हेमचन्द्र ( बारहवीं शताब्दी ) का परिशिष्टपर्वन् जिसके अन्तर्गत मोर्यो तक के मगध के राजा हैं , इसी का एक प्रकार का पाठान्तर , अथवा कम से कम इसका सबसे अधिक प्रसिद्ध पाठान्तर है । जैन सम्प्रदायों के बहुत से आचार्यों की सूचियां ( पट्टावलियां तथा गुर्वावलियां ) तथा कथानक हैं ,
जिनकी भारतीय . काल गणना को बहुत बड़ी देन है । परवर्ती काल के विविध प्रकार के जैन ऐतिहासिक ग्रन्थ , जिनके समय के पश्चात् की घटनाओं का अंशतः वर्णन , आरंभिक मध्ययुग पर्यन्त करते हैं । नवमी शताब्दी पर्यन्त उनको भारत के सामान्य इतिहास से सम्बद्ध माना जा सकता है , क्योंकि वे भिन्न - भिन्न प्रदेशों को अपने अन्तर्गत कर लेते हैं , जिसको भारत के इतिहास की प्रधान सरणि माना जा सकता है , उसका भी संस्पर्श करते हैं मगध , सातवाहनवंश , शकवंश , गुप्तवंश ( तथा ) कान्यकुब्ज के वंश । उसके पश्चात वे पश्चिम भारत पर ही सीमित हो जाते हैं । मालव , राजस्थान और विशेषत : गूर्जर ( गुजरात ) , जहां पर , जैन , वस्तुतःचन्द्रगुप्त हो गये ।
( नीचे हम इन प्रदेशों के उत्तर कालीन इतिहास लेखन में जैनों के योगदान का उल्लेख करेंगे । ) दूसरी ओर वे केवल कुछ एक विशिष्ट ऐतिहासिक व्यक्तियों को चुनने में स्वेच्छया आचरण करते हैं और प्रायः धारा - बद्ध इतिहास प्रस्तुत नहीं करते । ( धारा क्रम अन्यत्र प्राप्य आचार्यों की पट्टावलियों से प्राप्त होता है । ) के इन ग्रन्थों में से सर्वाधिक द्रष्टव्य प्रभाचन्द्र का प्रभावक चरित ( तेरहवीं शताब्दी ) है , जो कि सातवाहन ' , विक्रमादित्य जिसकी पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय से की जानी चाहिए ) और शकों का जिनका विनाश. , उसने स्वयं सम्राट बनने के लिए किया , हर्ष ( पुष्यभूति ) तथा कान्यकुब्ज के यशोवर्मन् ( आरंभिक आठवीं शताब्दी — प्रभाचन्द्र के अनुसार मौर्यों का वंशज ) जिन के पश्चात् नागभट ( द्वितीय गुर्जर प्रतिहार ) , और भोज ( प्रथम ) तथा ( पाल वंश के ) धर्मपाल हुए ।
परन्तु प्रभाचन्द्र की रुचि मुख्यतः साहित्य के इतिहास में है ( जिसमें ऐहलौकिक साहित्य भी शामिल है ) तथा उन प्रसिद्ध जैन आचार्यों के कथानकों में जो कि इन राजाओं से सम्बद्ध समझे जाते हैं । इस श्रेणी के अन्य ग्रन्थ हैं , जिनभद्र की प्रबन्धावली ( जिसका प्रकाशन इसी श्रेणी के कुछ लघुतर ग्रन्थों के साथ पुरातन प्रबन्ध संग्रह के नाम की एक पुस्तक में हुआ है ) ; मेरुतुंग की प्रबन्धचिन्तामणि , जिनप्रभ का विविधतीर्थकल्प तथा पाटलिपुत्रकल्प ( मौर्य सम्राट् सम्प्रति तथा आचार्य सुहस्तिन ) एवं राजशेखर ( द्वितीय , चौदहवीं शताब्दी ) का प्रबन्धकोश | विक्रमादित्य का आख्यान , अंशतः कालकाचार्य कथानक , में भी दिया गया है ,
जिसके लेखक का नाम ज्ञात नहीं । विश्व विज्ञान पर यतिवृषभ की रचना तिलोयपण्णति में इतिहास पर कुछ सूचना विद्यमान है ( गुप्त वंश : I , 95-99 ) पौराणिक इतिहास की समाप्ति के पश्चात् आने वाले समय की भारतीय काल गणना में एक असाधारण भ्रान्ति का प्रवेश हो गया है । ( चन्द्रगुप्त ) द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की ( ऐसा ही कुछ अन्य गुप्त सम्राटों तथा कुछ परवर्ती राजाओं ने भी किया ) । अब , एक सम्वत्सर जो ई ० पू ० 58-57 से आरम्भ होता है , विक्रम सम्वत् के नाम से प्रज्ञात है ।
इसका वास्तविक उद्भव अन्धकार में है , और पुराण इस विषय में कुछ भी सहायता उपस्थित नहीं करते , यद्यपि वे इस काल पर लिखते हैं । परवर्ती मध्ययुगीन काल गणकों ( प्रभाचन्द्र समेत ) ने किसी प्रकार यह धारणा बना ली है कि यह विक्रमादित्य ही था जो कि विक्रम सम्वत् का प्रवर्तक था , यद्यपि दोनों में 400 वर्ष से भी अधिक का अन्तर था । इस प्रकार की भूल का , जो इस अभिलाषा को छोड़कर कि एक लोकप्रिय सम्वत्सर को एक विख्यात भारतीय सम्राट् से सम्बन्ध किया जाए , स्वयं पुराणों की भारी भूलों के समान है , जिसका एकमात्र समाधान , शकवंश का समूचा निराकरण है ( और सचमुच कुषाणों का भी ) जो कि उज्जयिनी पर चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजय पर्यन्त लगभग ई ० पू ० 395 तक शासन करते रहे । इस प्रकार यह आख्यान उन शकों ( जो ईरानी , वस्तुतः सिथियन ) का उल्लेख करता है ।
जिन्होंने सिन्धु को जीतकर तत्पश्चात् उज्जयिनी पर अधिकार किया , परन्तु उन पर विक्रमादित्य की विजय को कुछ वर्ष पश्चात् ही रखता । विक्रमादित्य के समकालीन के रूप में , जैन दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर को बीच में लाकर , प्रभाचन्द्र , इस बात के एक भूल होने का साक्ष्य उपस्थित कर देता है । अब , सिद्धसेन , अन्य साक्ष्य के आधार पर बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग का समकालीन प्रतीत होता है जो चन्द्र द्वितीय का समकालीन तो भले ही रहा होगा , परन्तु वह ई ० पू ० चतुर्थ शताब्दी से पूर्व का नहीं हो सकता । ( जहां तक ई ० पू ० 58-57 में आरंभ होने वाले सम्वत्सर की बात है , सबसे पहले शिलालेख , जिनका दिनांकन इस सम्वत्सर ने किया जाने का हमें ज्ञान है , किसी विक्रम का उल्लेख नहीं करते , अपितु इसके उद्भव के लिए एक मालवगण का नाम देते हैं । इस प्रकार , ऐतिहासिक इतिवृत्त से ,
लोकतन्त्रात्मक शासन की परम्परागत कथाओं को मिटा देने का प्रेरक हेतु पुनः हमारे सामने आता है । हमें यह ज्ञात है कि पुरातन काल में माल गण पंजाब में बसा हुआ था । पीछे से वे राजस्थान में जाकर बस गये । यह उ समय हुआ होगा जब उन्होंने ई ० पू ० प्रथम शताब्दी में ( आरंभ होने वाले ) अपने सम्वत्सर की स्थापना की । उत्तर मध्य युग में जो देश मालव की संज्ञा से प्रख्यात · हुआ वही प्राचीन अवन्ती है जहां पर संभवतः छठी शताब्दी में गुर्जरों के राजस्थान में प्रवेश करने के पश्चात् प्रत्यक्ष रूप में वही लोक ( मालव ) फिर आ बसे इस कारण मालव सम्वत् का सम्बन्ध अवन्ती तथा इसकी प्राचीन राजधानी उज्जयिनी से हो गया ) ।
विक्रमादित्य के सम्बन्ध में कथानकों के चक्र से द्वितीय श्रेणी के इतिहास लेखन के कार्य का अन्तिम पड़ाव दिखाई पड़ता है ; जिसकी हमने बौद्धों द्वारा लिखे गये बुद्ध के जीवन चरितों के सम्बन्ध में चर्चा की है । ये कथानक उनके नायक के वास्ततिक समय से पांच या ( इससे अधिक शताब्दियां पीछे के हैं । चन्द्रगुप्त द्वितीय का वास्तविक महत्त्व यह था कि उसने अन्ततः गुप्त साम्राज्य को एक प्रभावशाली साम्राज्य के रूप में समस्त भारत पर स्थापित कर दिया , और सार्वभौम सम्राट के प्राचीन भारतीय स्वरूप को थोड़ा बहुत साकार बना दिया । इससे एक नये मध्यकालीन समाज के निर्माण के कार्य की पूर्ति का आश्वासन प्राप्त हुआ ।
( एक परम संरक्षक अधिराज तथा उसके कुल क्रमागत सामन्तों का एक ' सामन्तवादी ' साम्राज्य जो मगध के प्राचीन राष्ट्र से , जिसमें पूर्ण राजसत्ता केन्द्र के हाथ में थी तथा जिसके राजकर्मचारी समस्त भारत पर छाये हुए थे , भिन्न था ) इसकी प्राप्ति के लिए उसने दो मुख्य कार्य किये अपनी पुत्री का विवाह वाकाटक सम्राट् रुद्रसेन द्वितीय के साथ सम्पन्न करके उसने वाकाटकों के साथ अपनी मैत्री को सुदृढ़ बनाया जिसके फलस्वरूप दोनों साम्राज्य मिलकर एक हो गये ।
उसने इन दोनों ( वंशों ) के सर्वाधिक शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी शक वंश को नष्ट कर दिया जिसने कई शताब्दियों तक अपनी राजधानी उज्जयिनी से पश्चिम भारत के भाग पर अपना प्रभुत्व जमाया हुआ था । इस प्रकार गुप्त साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत के आर - पार एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक हो गया । कथानक में उसके द्वारा शकों के विनष्ट किये जाने के केवल एकमात्र तथ्य को ही स्थान दिया गया है । उसके चरित के सब विस्तृत वर्णन स्मृतिपटल से मिट गये हैं । ( कुछ घटनाएं दूसरे साहित्य में लेखबद्ध की गयी थीं ।
विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्त , जो कि घटना के केवल दो शत वर्ष पश्चात् ही लिखा गया , शकों के पतन का सविस्तार वृत्तान्त प्रस्तुत करता है । निःसन्देह नाटक को हृदयग्राही बनाने के लिए , इसमें पर्याप्त परिवर्तन किये गए हैं । कल्हण ने उसके ( विक्रमादित्य के ) द्वारा साहित्य को संरक्षण प्राप्त होने की बात लिखी है तथा उत्तर पश्चिम में कुषाण राज्य के अन्त हो जाने के पश्चात् काश्मीर में राज्य की व्यवस्था करने के का भी उल्लेख किया है । साहित्य तथा दर्शन को संरक्षण प्रदान करने के सम्बन्ध में , तथा वीर - काव्य के क्षेत्र में उसके अपने योगदान के वृत्तान्त अन्यत्र भी उपलब्ध होते हैं । )
इसके स्थान पर हमें जो कुछ मिलता है वह केवल रोचक कहानियां हैं जो कि उसके व्यक्तिगत साहस , उसकी दानशीलता तथा अनुकम्पा , एवं न्याय तथा विद्वत्ता के प्रति निष्ठा , तथा उसकी विद्वानों और लेखकों की विदग्ध परिषद् का दिग्दर्शन करवाती हैं | सत्यभूत नायक को पूर्णरूप में काल्पनिक बना दिया गया है , और उसको एक आदर्श सम्राट् प्रदर्शित करके सरल बना दिया है मानो कि उसकी एक मूर्ति ही शेष रह गयी है , जो कि एक अत्यन्त उदार संकेत मात्र कर रही है , और शेष सब कुछ अनुमान अथवा कल्पना से ही जानना । इन जैन ग्रंथों के अतिरिक्त , जिनका वर्णन पहले ही किया जा चुका है , विक्रमादित्य के इस व्यक्तित्व पर आश्रित , हमारे पास तीन कल्पित ग्रन्थ हैं जिनके लेखक अज्ञात हैं , परन्तु वे इतने सर्वप्रिय हैं कि पुनः पुनः अनेक पाठान्तरों में लिखे गए हैं ।
बैतालपंचविंशति हास्यपूर्ण कहानियों का एक संग्रह है जिनका अन्त पहेलियों में होता है , और जो वैताल द्वारा विक्रम को उसके साहस के परीक्षण के लिए सुनाई जाती हैं । ( इससे उसके सम्राट् होने की योग्यता प्रदर्शित की गयी ) , सिंहासनद्वात्रिंशिका , स्वयं सम्राट् के विषय में कहानियों के एक संकलन के द्वारा वीरता तथा उदारता की शिक्षा देती है । माधवानलकामकन्दला में एक प्रेमा ख्यायिका को दुःखान्त होने के स्थान पर साहसी विक्रमादित्य को बीच में लाकर सुखान्त बना दिया गया है ।
उत्तर मध्य युग की इन कल्पित कथाओं का विवेचन करके वस्तुतः हमने आने वाली घटनाओं का उल्लेख पहले ही कर दिया है ! वे हमें यह स्मरण कराने का कार्य करती हैं कि किसी भी गुप्त सम्राट् के समकालिक इतिहास अथवा जीवन चरित विद्यमान हों , ऐसा प्रतीत नहीं होता , यद्यपि यह कल्पना करना कठिन है कि उन्होंने अपने राजकवियों को इनके लिखने से परिवर्जित किया हो ।
मध्ययुगीन भारत के असंख्य राजाओं के जीवन वृत्तान्त के बहुत कम ग्रन्थ बचे रह गए हैं , परन्तु यह प्रमाणित करने के लिए कि राजकीय इतिहास लेखकों को नियुक्त करने की नियत प्रथा विद्यमान थी , पर्याप्त ( ग्रन्थ विद्यमान ) हैं । इतिहास की ऐसी पुस्तकों या चरितों का सुरक्षित रह जाना , प्रायः उनके ऐतिहासिक गुण की अपेक्षा उनके साहित्यिक गुण पर आश्रित देखा जाता है । राजाओं की यह प्रथा कि वे अपने चरितों का गुणगान करवाएं , निश्चित ही सूत की पुरातन संस्था के अनुक्रम में था ।